अब खेतों से गायब हो गयी अरहर की महक

गांव से शहर तक के लोगों की थाली से अपने यहां की अरहर दाल की सोधी महक लगभग गायब हो चली है। ऐसी स्थिति कभी बरौली में हजारों एकड़ में उपजायी जाने वाली अरहर अरहर की खेती धुर तक सिमट जाने से उत्पन्न हुई है।

किसान बताते हैं कि चार दशक पूर्व बरौली प्रखंड में अरहर दलहन की प्रमुख फसल होती थी। तब यहां के किसान इस फसल की खेती व्यापक पैमाने पर करते थे। जिले ही नहीं यहां उपजायी गयी अरहर के लिए सिवान जिला के महाराजगंज के साथ ही चंपारण में भी एक बड़ा बाजार लगता था। किसान टायर और बैलगाड़ी पर लाद कर अरहर को वहां की मंडी में भेजते थे। प्रखंड के बड़े-बुजुर्ग एवं प्रगतिशील किसान बताते है कि अस्सी के दशक तक बरौली के हजारों एकड़ जमीन पर अरहर की खेती होती थी। लेकिन नब्बे के दशक में अरहर की पैदावार कम होने लगी और धीरे-धीरे 1995 के बाद अरहर की खेती सिमटने लगी। किसान बताते हैं कि 2000 आते आते किसान इसकी खेती कट्ठे में करते रहे और अब इसकी खेती 10-5 धूर में सिकुड़ कर रह गयी है। भड़कुइयां, कोटवा, रतनसराय, फतेहपुर, मोहनपुर आदि गांवों के किसानों का कहना है कि अरहर के उत्पादन में गिरावट की मूल वजह इसके पौधों में फूल कम लगना और फूलों का झड़ना रहा। एक समय था कि अरहर के पौधे फूल से लद जाते थे। एक पौधे में सैकड़ों छिमीयां लगती थी, आज आलम है कि एक पौधे में एक से दो दर्जन छिमीया भी नहीं लग पाती है। अब सिर्फ जलावन के लिए किसान भला अरहर की क्यों करें। क्षेत्र में अरहर की उत्पादकता कम होते देखने के बावजूद भी प्रखंड कृषि विभाग का ध्यान इस तरफ नहीं गया है। न ही उत्पादन बढ़ाने के लिए कोई कारगर कदम उठाये गये है। हालांकि प्रखंड के कृषि पदाधिकारी इस बात से सहमत नहीं है। वे अरहर की कम खेती के लिए मौसम को कसूरवार ठहरा रहे हैं। वे कहते हैं कि अब अरहर की जगह दलहन फसल के रूप में मसूर की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है।

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