अजीब इत्तेफाक है। जब यह क्षेत्र पहली बार विधानसभा के रूप में सामने आया तब इसकी शुरुआत आरक्षण से ही हुई। 58 साल गुजर गए हैं, लेकिन यह विस क्षेत्र अब भी आरक्षित है। बीच में केवल बीस साल के लिए इस क्षेत्र का आरक्षण टूटा। इसके लिए तत्कालीन राजनीतिक कारण जिम्मेदार थे। हाल में हुए परिसीमन के बाद इलाके में सवर्ण वोटरों की संख्या में काफी इजाफा हुआ, लेकिन आरक्षण ने इस क्षेत्र के लोगों का पीछा नहीं छोड़ा। वैसे इस इलाके में अनुसूचित जाति की कुल आबादी नौ प्रतिशत ही है। इलाके में वैसे आरक्षण तो चुनावी मुद्दा नहीं बना है लेकिन इस बात की कसक आम लोगों के बीच जरूर है।
पहली बार जब बिहार विधानसभा के चुनाव हुए तो उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे भोरे को अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित विस क्षेत्र बना दिया गया। 1952 व 1957 के चुनावों में इस सीट से कांग्रेस के चन्द्रिका राम चुनाव जीतने में सफल रहे। 1962 में इसे आरक्षण से मुक्त किया गया और लगातार चार बार कांग्रेस के राजमंगल मिश्र चुनाव जीते। 1977 के चुनावों के पूर्व इस क्षेत्र को दोबारा अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया। इसके बाद से यह इलाका लगातार आरक्षित ही रहा है। पूर्व में जब विस क्षेत्रों का परिसीमन हो रहा था तब इलाके के लोगों में उम्मीद जगी कि अब शायद आरक्षण से मुक्ति मिलेगी लेकिन जनता की आस टूट गई। परिसीमन के बाद सबसे बड़ा बदलाव यह आया कि इस क्षेत्र में भोरे तथा विजयीपुर के अलावा कटेया प्रखंड को एक साथ मिलाकर इस क्षेत्र का गठन किया गया। ऐसे में इस क्षेत्र में सवर्ण वोटरों की संख्या में इजाफा हुआ तथा अनुसूचित जाति की आबादी में कमी आयी। आंकड़े बताते हैं कि इस क्षेत्र में कुल आबादी का केवल नौ प्रतिशत लोग ही निवास करते हैं। स्थानीय लोग इस बात को पचा नहीं पाते हैं कि सवर्ण मतदाताओं की अधिकता वाले इस क्षेत्र को आरक्षित किया गया है। आम लोग इस बात से सहमत भी हैं कि अब इस क्षेत्र को आरक्षण से मुक्त करना चाहिए। बावजूद इसके लोगों का कहना है कि इसे वे लोग चुनाव का मुद्दा नहीं बनाऐंगे। लेकिन अंदर ही अंदर सवर्ण वोटरों में इस बात की कसक तो जरूर है कि इस सीट पर आरक्षण क्यों?